गढ़वा : नेताजी ने सोचा आमजनों का दिल बाग-बाग कर अपनी पार्टी की भविष्य सुरक्षित कर लें, लिहाजा अपने एक वफादार अधिकारी को बुलाकर बोले चुनाव नजदीक आ रहा है... हम चाहते हैं कि हमारी सरकार से आम जनता फिलगूड करे.
समझाया हाथ पांव नहीं फुलाना है...बस छोटी-छोटी भीड़ हमारे मंत्रियों-विधायकों के लिए और बड़ी-बड़ी मंच हमारे लिए व्यवस्था करो. लगे हाथ हिदायत भी दे दी हाँ, ध्यान रखना भीड़ में एक भी वैसे फरियादी नहीं पहुँच पाएं, जो पिछली बार "आपकी योजना-आपकी सरकार आपके द्वार," शिविर में मिले आश्वासन से नाराज़गी प्रदर्शित कर, योजना की पोल खोल दे.
वैसे भी भीड़ के लिए क्या मगजमारी करना है, सरकारी तंत्र से जुड़े आंगनबाड़ी सेविका-सहायिका स्वयं सहायता समूह को कॉल कर देना है, हाजिर हो जाएंगे.
पापुलैरिटी गेन करने की जितनी चिंता नेताजी की थी, उससे कहीं ज्यादा कुर्सी बचाने के लिए वफादार अधिकारी की, वैसे भी इसमें लंबा अनुभव रखने के कारण उन्हें महारत हासिल थी, क्योंकि उन्होंने ऐसे-ऐसे कई नेताओं को पहले से ही देख रखा था. अनुभव काम आया...सो उन्होंने सरकार के चार वर्ष पूरा होने पर एक बार फिर "आपकी योजना- आपकी सरकार आपके द्वार" कार्यक्रम लॉन्च करने की प्रपोजल "नई बोतल में पुरानी शराब डालने" जैसी तैयार की.
नेताजी को समझाया, उन्हें भा गया...फिर क्या था, तारीख भी कार्यक्रम का मुकर्रर हो गया.
भला पढ़-लिखकर ऐसे ही थोड़े न नेताजी के विश्वासपात्र बनकर कुर्सी हाथिआए हुए हैं. अपना प्रेशर नीचे वाले को डालते हुए ईमेल-वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग-चिट्ठी-पत्री दौड़ा दिया.
फरमान पहुंचते ही जिला से लेकर प्रखंड व पंचायत से जुड़े अधिकारियों-कर्मचारियों की अपनी नौकरी बचाने की चिंता में हाथ-पांव फूलने लगी. कार्यक्रम की सफलता के लिए एड़ी रगड़ने लगे, तैयारियों की समीक्षा होने लगी. बात जनता तक भी पहुंच गई. चौक-चौराहा पर "सरकार आपके द्वार कार्यक्रम" की चर्चा छिड़ गई.
सत्ता पक्ष कार्यक्रम को आम जनों के लिए उपयोगी बतलाकर पीठ थपथपाते थकते नहीं दिख रहे थी...विपक्षी भी सरकार को कोशने की प्रतिस्पर्धा में रम गए.
चौपाल पर गरमा-गरम बहस चल रही थी...एक ने कहा चलो भाई... शायद इस बार शिविर में मेरा मोटेशन का काम हो जाएगा. दूसरे ने कहा...मुगालते में नहीं रहो, मैं पिछला मर्तबा शिविर में गया था, सब नोट किया गया...मंच से नेताजी ने अधिकारियों-कर्मचारियों को ऐसा धमकाया, मानो मेरा काम बन चुका है, पर... सालों बीत गया, काम नहीं हुआ. सब ढकोसला है.
तीसरे ने कहा...भीड़ जमा कर नेताओं को मंच से भाषणबाजी कराने के सिवा इस कार्यक्रम में ज्यादा कुछ नहीं होता. चौथे ने कहा...समझाया अरे भाई सबका रेट फिक्स है, जो रेट चुकाएगा, वही शिविर में बुलाकर अग्रिम पंक्ति में बैठाया जाएगा.
पांचवें ने कहा...हाँ, ठीक ही कह रहे हो, बगैर नजराना पेश किए. कहीं कोई काम होता है क्या? सब का रेट फिक्स है...शहरी आवास का 25000, ग्रामीण आवास योजना का 20000, बिरसा सिंचाई कूप योजना का 10 हजार, दाखिल खारिज का 10 से 15000 मापी, लगान रसीद तथा ऑन लाईन रेकॉर्ड्स में सुधार करने से संबंधित मामले भी... क्या बगैर नजराना पेश किए हो जाएगा?
हंसी तब तब आती है, जब केसीसी किसानों को देने के लिए खूब प्रचार-प्रसार होता है, पर मेरी तो एड़ी घिस गई ब्लॉक से लेकर बैंक तक का चक्कर लगाते-लगाते, सालों बीत गया पर किसान क्रेडिट कार्ड का दर्शन नहीं हो पाया. शिविर में ऐसे ही लोगों को बुलाया जाएगा, जिनसे सारा प्रक्रिया पूरी कर लिया गया हो. ऐसे ही इतना पहले सी तैयारी थोड़े न चल रही है.
बात चल ही रही थी. सभी आपस में मशगूल थे. इसी बीच एक ने कहा...पहले हो या अब अधिकारी-कर्मचारी वही हैं...सिर्फ रेट का फर्क पड़ सकता है. पर, नजराना पेश किए बिना क्या, आयुष्मान कार्ड, सामुदायिक वन पट्टा, व्यक्तिगत वन पट्टा देने के अधिकार हासिल हो जाएगा?
चले हैं, दरवाजे पर काम करने का दावा करने. आभ जनों की सुविधा के लिए खूब प्रखंड बनाए गए पर ,जिले के 50 फ़ीसदी प्रखंडों-अंचलों के मुख्यालयों में...अधिकारी-कर्मचारी तक नहीं रहते हैं और शिविर लगाकर काम कराने का डोंग कर रहे हैं, हिम्मत है तो, पिछले मर्तबा की शिविर में पड़े आवेदनों पर जनता का क्या-क्या कार्य संपन्न हो चुका है, पहले उसका रिपोर्ट प्रस्तुत करें, फिर "ऑन स्पॉट समाधान" का दावे करें.