गढ़वा : मैं जमीन हूं साहब मुझे अपने मालिक का नाम दिला दो। मेरे एक टुकड़े के लिए लोग एक दूसरे का खून बहाने तक को नहीं चुकते हैं।
यहां तक की मुझे पाने की लालसा में भाई भाई तक का खून का प्यासा बन जाता है। मैं सिर्फ धरती पुत्रों का पेट ही नहीं भरता, बल्कि ऑफिस के बाबू राजस्व विभाग के छोटे से बड़े हाकिम सबकी थैली भरता हूँ। किसका किसका नाम लूं मेरा नाम जुबान पर आते हैं, लोग मेरे नाम पर कुछ कमा लेने के लिए लार टपकाने लगते हैं। इसमें भला कौन पीछे है, थोड़ी सी झंझट हुई पुलिस मसलमैन खूब पूरी रुचि लेने लगते हैं। सभी मेरे मुरीद हैं।बावजूद मुझे ऑनलाइन के इस जमाने में मालिक की तलाश के लिए दर-दर क्यों भटकना पड़ रहा है?
ऑनलाइन के इस नए फंदे के फांस में फंसकर मैं बरसों से अपनी पहचान के लिए छटपटा रहा हूं।
इस नूतन प्रयोग ने तो मेरा बेड़ा ही गर्त कर दिया , अजीब अजीब चक्कर है कहीं मेरे मालिक का नाम ऑनलाइन में बदल दिया गया है, तो कहीं मेरे रकबे को सिकुड़ दिया गया है सब ठीक है तो हल्का अंचल के नाम ही गलत है। क्या क्या बताऊं गलती ही गलती है ।लिहाजा सुधारने जाओ या ऑनलाइन नहीं शो हो रहा हो रहा हो तो कराने जाओ सभी में भारी चक्कर है। ऑनलाइन के नाम पर ढ़ोल तो सरकार के मुखिया से लेकर जिला व अंचल कार्यालयों में खूब पीटा जा रहा है। मंत्री से लेकर संतरी तक दरबार भी लगाते हैं। जनता दरबार से लेकर सरकार आपके द्वार कार्यक्रम भी चलाया जा रहा है। पर अब तक परिणाम सिफर ही साबित हुआ है।
ऐसा नहीं की नजराना पेश करने में भी मेरा मालिक कभी पीछे रहता है।
बावजूद मुझे ऑनलाइन पहचान नहीं मिल पा रही है, वैसे मैं ऑनलाइन पहचान दिलाने के लिए अपने मालिक के माध्यम से कोई कोशिश नहीं छोड़ी है। मतलब पहले अंचल कार्यालयों के सामने दिखने वाले फॉर्म को खरीदा, फिर अंचल पदाधिकारी के कार्यालय में आवेदन दिए, राजस्व कर्मचारी को चिरौरी की, सीआई, सीओ सभी से मिला पर बात नहीं बनी, कभी कहा गया अभी मतदाता सूची पुनरीक्षण का कार्य चल रहा है तो कभी कुछ और बहाने। थक हार कर जनता दरबार से लेकर सरकार आपके द्वार तक के कार्यक्रम में लैपटॉप पर भी कैंपों में अपनी पहचान दिलाने की इंट्री कराई ,पर आश्वासन के सिवा कुछ भी हाथ नहीं लगा। नतीजा वही ढाक के तीन पात साबित हुआ। सोचा नजराना पेश कर आसानी से काम निकाल लूंगा, पर वहां भी बात नहीं बन पा रही है।
क्योंकि ऑपरेटर से लेकर साहब तक सबको डील करना कोई छोटी बात है क्या?
पहले तो हाकिमों से दफ्तर में मुलाकात ही कठिन है। दिन को जाओ तो पता चलता है कि साहब की महफिल ऑफिस में शाम 7:00 बजे के बाद सजती है। कभी मुलाकात हो भी गई तो बात बन ही जाए कोई जरूरी नहीं है।