बंशीधर नगर : हाथ के ऊपर हाथ करो, पर हाथ के नीचे हाथ न करो । जिस दिन दूसरों के आगे हाथ फैलानेकी नौबत आवे, उस दिन मरण हो जाय तो अच्छा:- जीयर स्वामी।
माँगना और मरना दोनों समान हैं, बल्कि माँगनेसे मरना भला। याचना करनेसे त्रिलोकीनाथ भगवान्को भी छोटा होना पड़ा, तब दूसरोंके लिये कहना ही क्या ?
हाथ के ऊपर हाथ करो, पर हाथ के नीचे हाथ न करो । जिस दिन दूसरोंके आगे हाथ फैलानेकी नौबत आवे, उस दिन मरण हो जाय तो अच्छा।
स्त्री-पुत्रोंके पालन-पोषणकी चिन्तामें मनुष्यकी सारी आयु बीत जाती है; पर परमात्माके भजनमें उसका मन नहीं लगता ।
स्त्री-माया ही संसार - वृक्षका बीज है । शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धउसके पत्ते काम-क्रोधादि उसकी डालियाँ, पुत्र कन्या प्रभृति उसके फल हैं और तृष्णारूपी जलसे यह संसार वृक्ष बढ़ता है ।
लोह और काठकी बेड़ियोंसे चाहे कभी छुटकारा हो जाय, पर स्त्री-पुत्रादिकी मोहरूपी बेड़ियोंसे पुरुषका पीछा नहीं छूट सकता । जिनके मुँह देखनेसे पाप लगता है, स्त्री के लिये उन्हींकी खुशामदें करनी पड़ती हैं ।
किस्मत को देखो कि जिसने मनुष्यको कितना कमजोर बनाया, पर काम उससे दोनों लोकोंके लिये गये । उसे इस लोक और परलोक की फिक्र लगा दी ।
स्त्रीके वशमें होना सर्वनाश का बीज बोना है । -
गर्दन पर बिखरे हुए बालों वाला करालमुखी सिंह, अत्यन्त मतवाला हाथी और बुद्धिमान् समरशूर पुरुष भी स्त्रियोंके आगे
जो तुम्हारी बातें सुनना न चाहें, उनके गले मत पड़ो। विषयभोगों में सुख नहीं है। एक न एक दिन मनुष्यको इनसे अलग होना ही पड़ता है। अलग होनेके समय विषय-भोगीको बड़ा दुःख होता है ।
आत्मचिन्तन करो, पर आत्मचिन्तन करना सहज काम नहीं है। इसके लिये मनको वशमें करना होगा, उसे विषयोंसे हटाना होगा, उसे वृत्तियोंसे अलग कर एकाग्र करना होगा, तभी सफलता हो सकेगी ।
मूर्ख मनुष्य भाग्यपर संतोष नहीं करता, धनके लिये मारा - मारा फिरता है । जब कुछ हाथ नहीं लगता, तब रोता और कलपता है।
यदि तू सुख-शान्तिसे जीवनयापन करना चाहता है तो तृष्णा पिशाचीके फंदेसे निकलकर भाग्यपर संतोष कर ।
अरी पामर तृष्णा! मैं तुझसे पूछता हूँ कि इतने कुकर्म कराकर भी तुझे संतोष हुआ या नहीं ।
सूर्य के उदय और अस्त के साथ मनुष्यों की जिन्दगी रोज घटती जाती है। समय भागा जाता है, पर कारोबारमें मशगूल रहनेके कारण वह भागता हुआ नहीं दीखता । लोगोंको पैदा होते, विपत्तिग्रस्त होते और मरते देखकर भी मन में भय नहीं होता।
इससे मालूम होता है कि मोहमयी प्रमादरूप मदिरा (शराब) के नशेमें संसार मतवाला हो रहा है ।
मनुष्य दूसरे को बूढ़ा हुआ तथा मरनेवाला देखता है, पर स्वयं यही समझता है मैं तो सदा जवान रहूँगा- अमर रहूँगा।यह अज्ञानी का लक्षण है।
मनुष्यों ! मिथ्या आशा के फेर में दुर्लभ मनुष्य शारीर को यों ही नष्ट न करो ।