अभी इस मुद्दे पर बहस चलेगी कि दिल्ली की सीमाओं पर दो महीनों से चल रहे शांतिपूर्ण किसान आंदोलन के हिंसक होने के पीछे किसकी ज़िम्मेदारी है। ख़ुद किसान संगठनों से जुड़े अपराधी तत्वों की, आतंकियों की या सरकार द्वारा आंदोलन में घुसपैठ कराए गए लोगों की ? बहरहाल जो हुआ वह देश को शर्मसार करने वाला था। उससे किसान आंदोलन का नैतिक बल कमज़ोर हुआ है और सरकार को उसके दमन का बहाना हाथ लग गया है। एक ज़रूरी आंदोलन में आए इस दुखद विचलन के लिए ज़िम्मेदार लोगों की पहचान कर उन्हें कड़ी से कड़ी सज़ा दी जानी चाहिए, लेकिन इसकी आड़ में जिस तरह इस पूरे किसान आंदोलन को ही देशद्रोह और उससे जुड़े तमाम किसान नेताओं को देशद्रोही साबित करने की कोशिशें की जा रही है, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। यह देश में लोकतंत्र की जड़ों को कमज़ोर करने वाली सोच है। दोषियों की पहचान कर उन्हें सज़ा दिलाने जाने का काम पुलिस पर छोड़ दिया जाना चाहिए। अभी किसान आंदोलन ही नहीं, अपने देश में भी जैसी अनिश्चितता और आशंका का माहौल है, उसे बदलने की ज़रुरत है। यह काम सरकार कर सकती है और उसे करना भी चाहिए। यह मौक़ा है कि वह फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी दर्ज़ा देने की घोषणा कर दे और तीनों कृषि कानूनों को रद्द कर यह राज्य सरकारों पर छोड़ दे कि वे किसान संगठनों और विपक्षी दलों से विमर्श कर अपने-अपने राज्य के लिए सर्वमान्य कृषि कानून बनाएं। वैसे भी कृषि केंद्र का नहीं, राज्यों का विषय है। केंद्र सरकार ने नाहक ही इसमें टांग अड़ा कर अपनी फज़ीहत कराई है।
देश के कई कॉरपोरेट घरानों को कृषि के अलावा भी कई दूसरे क्षेत्रों में कमाई के अवसर मिल जाएंगे, लेकिन आपदा में अवसर तलाशने वाली मोदी सरकार को किसानों का दिल जीतने का इससे बेहतर अवसर फिर नहीं मिलेगा।