गढ़वा : गरीब मजदूर के विकास का जायजा लेने की महत्वाकांक्षा पाले अपने एक मित्र के साथ मैं बर्षों बाद गांव गया था. वहीं मनरेगा योजना का ज़िक्र आ गया. रास्ते के दोनों तरफ धान की कुछ फसलें सुखी तो मौसम की दगाबाजी के बावजूद मेहनतकश किसानों द्वारा सिंचित किए गए खेतों में कुछ बालियां कटनी की तलाश में रुआंसे झुकी हुई नजर आ रही थी.
मैंने जिज्ञासा बस अपने मित्र से यूं ही पूछ लिया कि यार...जिस मनरेगा योजना का इतना हल्ला है, तो गांव की मजदूर तो अब रोज़गार की तलाश में दिल्ली, मुंबई, गुजरात मजदूरी के लिए पलायन नहीं किए होंगे?
पर, नजर क्यों नहीं आ रहे हैं? सिर्फ महिलाएं-बच्चे ही गांव में दिख रहे हैं, उसने कहा यार मनरेगा योजना मजदूर के लिए थोडे़ न है, इसका मजा तो मुखिया जी और इससे जुड़े कर्मी ले रहे हैं. मैंने कहा छोड़ो रोजगार की बात बाद में भी कर लेंगे, पर सुना है कि बर्षों से गांव में मनरेगा योजना से फलदार पौधों की बागवानी लगाई जा रही है, जरा दिखाओ तुम्हारे गांव में बागवानी कहां है, क्या वह भी जमीनदोज तो नहीं हो गया?
इतना सुनते ही मेरे मित्र भड़क गए. उन्होंने बगावती अंदाज में कहा यार तुम लोग शहर में मटरगश्ती कर रहे हो, इसलिए इतनी लंबी-चौड़ी बात कर रहे हो. तुम जिस राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, 2005 की बात कर रहे हो, वह अब मिशन थोड़े न रह गया है. पूरी तरह से कमीशन का भेंट चढ़ गया है.
एक वित्तीय वर्ष की अवधि में अपने ही पंचायत गांव में प्रत्येक परिवार को कम से कम 100 दिन का रोजगार की गारंटी अब इसका लक्ष्य थोड़े ना है. अब तो बस भ्रष्टाचार के सिस्टम में यह योजना इस तरह से कुंद हो गया है कि ना तो इससे मजदूरों को रोजगार मिल रहा है और न ही गांव का विकास. ऐसे में बागवानी की तलाश करना छोड़ दो. दरअसल बागवानी की रकम मुखिया जी से शुरू होकर बड़े साहब तक कमीशन के माध्यम से जेब में पहुंच रहा है. फिर जमीन पर कहां से नज़र आएगा.
अरे यार... मजदूरों के पलायन रोकने के लिए सरकार की इतनी बड़ी मनरेगा योजना में ऐसा कैसे हो गया, जबकि पंचायती राज व्यवस्था लागू हो चुका है. ब्यूरोक्रेट के साथ वार्ड सदस्य से लेकर मुखिया जी तक की इस योजना में प्रमुख भूमिका रहती है. फिर ऐसा, कैसे संभव है?
उसने मुझे समझाते हुए कहा देख भाई... सरकार का नियम है कि ग्राम पंचायत के माध्यम से ग्राम सभा कर योजना का चयन किया जाए, पर व्यवहार में कुछ और ही है. मुखिया जी लोग इतने बहादुर हैं कि ग्राम पंचायत में ग्रामीणों को बुलाने की बात तो दूर वार्ड सदस्यों तक को भी नहीं बुलाने की परिपाटी बना रखा है, ताकि अपनी पसंद की वैसी योजना ग्राम सभा में फर्जी तरीके से पास करा सकें, जिसमें बिचौलिया के माध्यम से अधिक से अधिक लाभ फिक्स कमीशन के अलावा पार्टनरी से हो सके.
अरे यार ऐसा कैसे संभव है...आखिर मुखिया जी के ऊपर भी तो कई प्रक्रिया है, वहां कैसे होगा? कहा, यार... ग्राम सभा से योजना स्वीकृती की मुहर लगते ही मुखिया जी प्रखंड के हकीम के पास जाते हैं. वहां पगड़ी पहुंचती है. योजना फटाक से स्वीकृत हो जाती है. स्वीकृत होने के बाद कमिशन सभी का फिक्स है, कोई हुल-हुज्जत नहीं करना है. चाहे बागवानी लगवाना हो अथवा वाटर लेवल बढ़ाने के नाम पर ट्रेंच खुदवाना. कुछ भी लफड़ा नहीं है.
अरे यार ऐसा कैसे संभव है... क्यों संभव नहीं है, काम कराने में अधिकारी को इंटरेस्ट है, न इंजीनियर को. मुखिया जी भी बागवानी लगे अथवा चूल्हेभाड़ में जाए की राह पर फिक्स कमीशन पहुंचाओ पैसा पाओ नीति अपनाते चलते हैं.
यह सब फालतू बात है. पैसा जब मजदूर के खाते में जाएगा तो बिचौलिया/मुखिया जी के हाथ में कैसे जाएगा... अरे यार... मजदूर से कार्य ही कहाँ कराना है. सीधा जेसीबी मंगाओ इमारत की नींव की तरह शान से खुदवाओ, सब कमीशन लेकर सेट हैं, फिर कौन पूछता है कि मजदूर से करवा रहे हो अथवा मशीन से.फिर पेड़ लगवाना हो अथवा वाटर लेवल बढ़ाने के लिए ट्रेंच खुदवान... बस उसका रस्मअदाएगी करो.
चलो फिर विकास तो हो ही रहा है. घंटा विकास हो रहा है. 50 फ़ीसदी कमिशन मुखिया जी पंचायत सचिव, जेई, एई, बीडीओ की थैली में पीसी के नाम पर हजम हो गया तो क्या विचौलिया 25 परसेंट भी पास नहीं रखेगा. बेचारा परिश्रम कर फर्जी मास्टर रोल, उपर से जॉब कार्डधारी तलाशता है. फिर मजदूर के खाते में पैसा डलवाओ फिर उसे सप्ताह भर के मजदूरी के बदले में खाते से मजदूरी निकलवाने के बदले 500 का नेग दो. यह सारा सिस्टम फॉलो कर वह क्यों लगा हुआ है. रही बात 25% शेष राशि का तो उसी से बागवानी लगाने जैसी योजना की रस्म अदायगी कर दी जाती है.
यार आखिर इसमें सोसल ऑडिट, निगरानी वालों का डर यह सब भी तो लफड़ा है. काहे का लफड़ा, बोला भैया पिछले 4 साल से निगरानी वाले तो घर में ही सोए हैं, पहले कुछ निगरानी वालों का डर हुआ करता था कि कहीं कोई अधिकारी-कर्मचारी को कमीशन रिश्वत लेने के दौरान पकड़वाकर जेल का हवा न खिला दे. पर अब पता नहीं किस दबाव में निगरानी वाले भी मौन साधे बैठे हैं.
रही बात सोशल ऑडिट का तो उन्हें भी तो स्वयं का विकास करना है. लिहाजा सोशल ऑडिट भी रस्मअदायगी से ज्यादा कुछ नहीं है. सब सेटिंग-गेटिंग है पैसा फेंको तमाशा देखो, सिर्फ इतना ही मतलब है.
मनरेगा योजना से ऐसे में ना तो इससे मजदूरों को मजदूरी मिलेगी, ना वह घर पर रहेंगे, उनके पास पलायन के सिवा दूसरा कोई रास्ता भी है क्या? रही बात मनरेगा योजना से विकास का तो, बागवानी बरसों से लग रहा है पर कहीं नजर नहीं आ रहा, इससे अनुमान लगा लो कैसे हो रहा है गांवों का विकास.