गढ़वा : अरे भाई मुझे डंपिंग यार्ड नहीं समझो मैं गढ़वा शहर का लाइफ लाइन दानरो नदी हूँ, जिसकी अविरल धारा में कभी लोग स्नान कर गंगा-स्नान का सुख पाते थे। चलते फिरते राहगीरों की प्यास बुझाने का चुआंड़ी-प्याऊ की भी मेरी पहचान रही है।
ऐसा नहीं कि मेरी अब अहमियत नहीं है। अभी भी कहाँ मेरे बिना लोगों का गुजारा है। शहर के लोग मेरे ऊपर निर्भर नहीं हैं क्या? झारखंड की सबसे बड़े छठ मेला लगने की दावा कर इतराने का सकुन मैं नहीं देता हूं क्या? तभी तो मुझे गढ़वा शहर का लाइफ लाइन कहा जाता है।
फिर भी मेरी दुर्गति ऐसी क्यों? मैंने ऐसा क्या खता किया कि मेरी दुर्गति पर सभी मौन साधे बैठे हैं। माना कि 'रक्षक ही बने भक्षक' की कहावत को चरितार्थ करते हुए शहर की गंदगी भरे कचरे को डालकर मुझे डंपिंग यार्ड बना दिया गया है।
नतीजतन मेरे नजदीक आने से लोग-बाग बदबू से कतरा रहे हैं।
पर हमसे किनारे काट कर कब तक खुद को रख पाओगे? बगैर मेरे पास आए जीवन बसर हो पाएगा क्या? सुगंध की जगह पर मैं भले ही दुर्गंध दूँ, पर इसी दुर्गंध में श्रद्धा और श्राद्ध सभी के लिए तो आज भी मेरे ही निकट आने को मजबूर हो।
यद्यपि मेरी अपेक्षा आज कोई नई बात नहीं है। तरह-तरह के प्रयोग कर मेरे छाती पर हकीम-हुक्मरान, जनप्रतिनिधियों ने मूंग दलने के काम किए हैं। कभी मिनी बायपास बनाने के नाम पर मेरी बांहों को काट मुझे दिव्यांग बनाकर, तो कभी सड़क बनाकर मेरी काया को दुबले-पतले हाड़ में चिपके मांस जैसे भिखारी के शक्ल में तब्दील कर किया है।
छठ घाट के नाम पर निगरानी मंच, टैक्सी स्टैंड, शमशान घाट, पावर सब-स्टेशन व शौचालय जैसी निर्माण के नाम पर मेरे उपर भवन खड़ा करने की परिपाटी कब रुकेगी कहना मुश्किल है।
मेरे साथ हमेशा उल्टा चाल चला गया। शहर का वाटर लेवल बढ़ाने के नाम पर, मेरी रेत की चादर को संरक्षित करने के बजाय इस तरह लूट लिया गया की मेरी सतह तो गहरी हो ही गई, अब रेत का स्थान मिट्टी ने ले लिया है। यहां तक कि करोड़ों खर्च कर चेक डैम निर्माण कराकर मेरी सूरत तो बिगड़ तो दिया गया, पर इससे वाटर लेवल कितना बढ़ा आप सभी जानते हैं।
ऐसे में वर्तमान में गढ़वा नगर परिषद द्वारा डंपिंग यार्ड बनाकर दुर्गंध फैलाने का आरोप झेलना मेरे लिए कोई नई बात नहीं है। ऐसा नहीं कि मैं हकीम हुक्मरानों के निगाह से दूर हूँ।
आप सभी जानते हैं कि जिसने भी जिला मुख्यालय में कुछ फासले तय किया, मुझसे होकर गुजरना उसकी मजबूरी सी है। क्योंकि शहर का न केवल 80 फिसदी आबादी को मैं हमेशा निहारने की स्थिति में हूँ, बल्कि मुझे क्रॉस किए बिना मुख्यालय में इंट्री ही असंभव तो नहीं पर आसान भी नहीं है।
बावजूद मैं जवाबदेह लोगों की निगाह से उपेक्षित कैसे हूँ, मेरे समझ से परे है।
क्या मैं सिर्फ इसीलिए हूं कि, शव जला लो, कचरा फेंक लो, डेयरी फार्म खोल लो, ट्रक खड़ा कर अपना सामान उतरवा लो, यहां तक की क्रिकेट भी खेल लो और इस्तेमाल करो और फेंक दो। भला ऐसी उपेक्षा मेरे साथ क्यों?
ठीक है मेरी उपेक्षा हुई है, पर मैं अभी भी खुद की अहमियत बरकरार रखने को ले आशावान हूँ। सुना है कि जिस हकीम ने मुझे डंपिंग यार्ड बनाया है, वही अब रिवर-फ्रंट बनाने वाले हैं। देखते हैं शायद कभी मेरी भी दिन बहुरेंगे।