बंशीधर नगर :
स्वामी जी महाराज ने प्रवचन करते हुए कहा की प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में सत्संग करना चाहिए क्योंकि यह धरती पर ही संभव है यह स्वर्ग में भी संत दर्शन करने को नहीं मिलता और ना ही भागवत कथा सुनने को मिलता है यह दुर्लभ मानव योनि मिलने के बाद व्यक्ति को अपना जीवन सत्कर्म में लगाना चाहिए अच्छे कर्मों में लगाना चाहिए जीभ के स्वाद के लिए दूसरे जीव को मार कर नहीं खाना चाहिए क्योंकि व्यक्ति भी उस योनि से होकर आया है ।
उन्होंने कहा कि सत्संग के दौरान जो संत वाणी व्यक्ति सुनता है प्रवचन सुनता है उसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए अगर 10 बातें सुनता है उसमें दो बातें भी अगर जीवन में सफलता पूर्वक ग्रहण कर लिया है तो समझ की जीवन धन्य हो गया लेकिन रोज प्रवचन सुने और रोज गलत काम करें रोज जीव को मार कर खाएं दूसरे को धोखा दें बिना वजह का झूठ बोलते रहे तो फिर संत दर्शन और प्रवचन सुनने का कोई अर्थ नहीं रह जाता जैसे कपड़ा को खूब अच्छा तरीके से साफ सफाई करके उसको पहन लीजिए ऊपर से इतर डाल दीजिए और नाला में कूद जाइए तो फिर साफ कपड़ा पहने और इत्र लगाने से कोई फायदा नहीं होगा।
मन द्वारा, वाणी द्वारा, शरीर द्वारा भक्तिपूर्वक परमात्मा का ध्यान करते हुए उनके नाम गुण, लीला, धाम इन चारों का जो उपासना करता है। यह श्रेष्ठ प्रायश्चित है। यह जितना श्रेष्ठ प्रायश्चित है उतना श्रेष्ठ प्रायश्चित यज्ञ, दान, तप भी नही है। यज्ञ, दान, तप करने वाला का हो सकता है उसके पापों का मार्जन न हो। लेकिन जो मन से वाणी से पवित्र होकर नाम गुण, लीला, धाम इन चारों का जो भावना करता है। यहीं सबसे श्रेष्ठ प्रायश्चित है।
श्रीमद्भागवत गीता में अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से पुछा है कि जो परमात्मा के अधिकारी हैं उनकी क्या भाषा है। उनकी क्या बोल चाल है, क्या लक्षण है। तो भगवान ने बताया कि जो भगवान में सोता है, जगता है, खाता है, उठता है, बैठता है, इतना ही नही जैसे कछुआ अपने शरीर को फैलाकर जल में तैरता है।
उसी प्रकार से जो स्थितप्रज्ञ होते हैं, भगवान के भक्त होते हैं। वे दुनिया में अनेक प्रकार के लोगों को संदेश देने के लिए कहीं यज्ञ करते हैं। कहीं मंदिर बनाते है इसके द्वारा जब समाज को संदेश दे देते हैं तो फिर अपने में समेटने लगते हैं। यही निर्वाण पुरूष का लक्षण है।