बंशीधर नगर :
श्री बंशीधर नगर-प्रखंड के पाल्हे जतपुरा ग्राम में चल रहे प्रवचन के दौरान श्री जीयर स्वामी ने कहा कि संत और भक्त वही है जिसे भगवान् का सगुण साक्षात्कार हुआ हो. भोजन के बिना तृप्ति कहाँ ?भगवान् आलिङ्गन देकर प्रीति से इन अङ्गों को शान्त करेंगे और अमृतकी दृष्टि डालकर मेरे जी को ठंडा करेंगे. गोद में उठा लेंगे और भूख-प्यास भी पूछेंगे और पीताम्बर से मेरा मुँह पोंछेंगे.
प्रेमसे मेरी ओर देखते हुए मेरी ठुड्डी पकड़कर मुझे सान्त्वना देंगे. मेरे माँ-बाप हे विश्वम्भर ! अब ऐसी ही कुछ कृपा करो ! मेरे माँ-बाप ! मुझे प्रत्यक्ष बनकर दिखाइये.आँखों से देख लूँगा तब तुम से बातचीत भी करूँगा, चरणोंमें लिपट जाऊँगा. फिर चरणों में दृष्टि लगाकर हाथ जोड़कर सामने खड़ा रहूँगा. यही मेरी उत्कट वासना है, नारायण ! मेरी यह कामना पूरी करो.
पर निन्दा में बड़ी रुचि थी, दूसरोंकी खूब निन्दा की, परोपकार न मैंने किया; न दूसरों से कभी कराया. दूसरोंको पीड़ा पहुँचाने में कभी दया न आयी. ऐसा व्यवसाय किया जो न करना चाहिये और उससे पाया तो क्या, अपने कुटुम्ब का भार ढोता फिरा . तीर्थों की कभी यात्रा नहीं की, केवल इस पिण्ड के पालन करने में ही हाथ-पैर मारता रहा . मुझसे न संत-सेवा बनी, न दान-पुण्य बना, न भगवान् की मूर्ति का दर्शन और पूजन-अर्चन ही बना. कुसङ्ग में पड़कर अनेक अन्याय और अधर्म किये. मैंने अपना-आप ही सत्यानाश किया, मैं अपना- आप ही वैरी बना. भगवन् ! तुम दयाके निधान हो, मुझे इस भवसागर के पार उतारो ! भव सागर को तैर कर पार करते हुए चिन्ता किस बातकी करते हो ? उस पार तो 'वह' कटिपर कर धरे खड़े हैं. जो कुछ चाहते हो उसके वही तो दाता हैं.उनके चरणों में जाकर लिपट जाओ ! वह जगत् स्वामी तुमसे कोई मोल नहीं लेंगे, केवल तुम्हारी भक्तिसे ही तुम्हें अपने कंधे पर उठा ले जायँगे .प्रभु जहाँ प्रसन्न हुए तहाँ भुक्ति और मुक्ति की चिन्ता क्या ? वहाँ दैन्य और दारिद्र्य कहाँ ?संसारमें बने रहो, पर हरि को न भूलो .हरिनाम जपते हुए न्याय-नीति से सब काम करते चलो. इससे संसार भी सुखद होता है.सुख - जव बराबर है तो दुःख पहाड़-बराबर . संसारके विषयमें सब का यही अनुभव है.माँ-बाप, स्त्री-पुत्र, संगी-साथी, धन-दौलत, राजा-महाराजा कोई भी हमें क्या मृत्यु से बचा सकता है ? यह शरीर तो काल का कलेवा है.कौड़ी - कौड़ी जोड़कर करोड़ रुपये इकट्ठे करो, पर साथ तो एक लँगोटी भी न जायेगी. संगी-साथी एक-एक करके चले .अब तुम्हारी भी बारी आयेगी.पैरों तक वनमाला लटक रही है, उन सुन्दर मधुर घनश्याम को देखते हुए नेत्रोंसे मानों प्राण निकल पड़ते हैं .श्रीकृष्ण लीला विग्रह हैं, उनका शरीर लोकाभिराम और ध्यान-धारण मङ्गलप्रद हैं. वेदोंका जन्मस्थान, षट्शास्त्रोंका समाधान, षड्दर्शनोंकी पहेली—ऐसा यह श्रीकृष्णका पूर्णावतार है भक्तिका रहस्य जानना हो तो आओ, श्रीवृन्दावन - लीलाका आश्रय करो ,चारों वेद जिसकी कीर्ति बखानते हैं, योगियों के ध्यान में जो एक क्षणभर के लिये भी नहीं आता, वह ग्वालिनोंके हाथ बँध जाता है, भावुक ग्वालिनें उसे पकड़ रखती हैं. इन भक्तिनों के पास वह गिड़गिड़ाता हुआ आता है और सयाने कहते हैं कि वह तो मिलता ही नहीं.इन भोरी अहीरिनों के पूर्वपुण्यका हिसाब कौन लगा सकता है, जिन्होंने मुरारी को खेलाया- अन्तः सुख से खेलाया और बाह्यसुखसे भी उन्हें पाकर अपनेको अर्पण कर दिया. भगवान ने उन्हें अन्तःसुख दिया, जिन्होंने एकनिष्ठ भाव से उन्हें जाना. श्रीकृष्ण में जिनका तन-मन लग गया, जो घर-द्वार और पति-पुत्र तक को भूल गयी, जिनके लिये धन, मान और स्वजन विष से हो गये, वे एकान्त वन में भगवान्के साथ जा मिलीं. देह की सारी भावना, सारी सुध-बुध बिसार दी; तब वही नारायण की सम्पूर्ण पूजा-अर्चा है .ऐसे भक्तोंकी पूजा भगवान्, भक्तोंके जाने बिना ले लेते हैं और उनके माँगे बिना उन्हें अपना ठाँव दे देते हैं .उन ग्वालिनों का भी कैसा महान् पुण्य था, वे गाय, बछड़े और अन्य पशु भी कैसे भाग्यवान् थे. ग्वालिनों को जो सुख मिला वह दूसरोंके लिये, ब्रह्मादि के लिये भी दुर्लभ है.गोपियाँ रास - रंगमें समरस हुईं, उसी प्रकार हमारी चित्त-वृत्तियाँ श्रीकृष्ण प्रेम में सराबोर हो जायँ.