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विकाश की खोज

location_on गढ़वा access_time 17-Jul-20, 07:11 PM visibility 654
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						विकाश की खोज


प्रशांत कुमार पाण्डेय, गढ़वा check_circle
मैकेनिकल इंजीनियर



भारत- विश्व का सबसे बड़ा प्रजातांत्रिक देश, छेत्रफल के अनुसार सातवाँ तथा जनसंख्या के आधार पर दूसरा पर आज भी यहाँ ऐसी स्थिति बनी हुई है कि सभी लोगों की बुनियादी जरूरतें तक पूरी नहीं हो पाती। किसी के पास खाने को रोटी नहीं तो किसी के पास कपड़ा नहीं तो किसी के सिर पर छत नहीं। सरकार लगी है, ढेरों योजनाएं बनाती है पर कुछ कागजों में, कुछ भाषणों में, कुछ सिर्फ चूनावी पोस्टरों में और कुछ विभाग के बड़े - छोटे बाबुओं के पॉकेटों तक हीं सिमट कर रह जाते हैं। एकाध योजना आती है धरातल पर वो भी खाने के बाद बची खुची आम की तरह, जिसे ये भोली भाली जनता पाकर बहुत खुश होती है और आम के मीठेपन का एहसास पाकर अपने नेता जी की वाहवाही में जुट जाती है।
यही हाल हमारे यहाँ का भी है। ढेरों बसंत बीत गए कई लोग आए और गए पर आज भी सब वही का वही है। वही पुराना बस अड्डा, अपनी प्रगती के इंतेज़ार में बैठा, रेलवे स्टेशन जिस पर रोज ढेरों रेल गाड़ियां आती जाती हैं पर इंतेज़ार आज भी जारी है। शायद किसी दिन कोई बाबू उतरेंगे अच्छी खबर लेकर। खुद के सीने में ढेरों घाव लिए वही पुरानी सड़क, जिसके दर्द को कोई नहीं ठीक कर पाया। कुछ लोगों ने प्रयास किया भी तो पूरे इलाज का खर्चा लेकर बस थोड़ा सा मरहम पट्टी करा दिया। कुछ दिन तो ठीक रहा पर दुबारा से घाव उभर आया। गाड़ियां बढ़ रहीं हैं, साथ साथ जनसंख्या भी, वोटरों की गिनती भी बढ़ी है पर विकाश - आज भी खोजा जा रहा है। सभी चीजों की बढ़त के साथ सड़कों पर भी बोझ बढ़ गया है, पर आज भी उनका घाव बना हुआ है।
जिसके बावजूद दिन रात सड़कें अपना कर्तव्य निभाने में लगी हैं। इनके बोझ को कम करने के लिए कितनी बार बाईपास का झूठा दिलासा दिया गया। कई बार शिलान्यास हुए, जगह देखी गयी, ढेरों पूजा कराई गई पर सब विफल। सरकार ने लोगों के सिरों पर छत देने के लिए भी ढेरों योजनायें बनाई पर फायदा क्या? उसके लिए भी बाबुओं को खिलाना पड़ता है। जरा सोचिए अगर पैसे हो साहब - तो खुद न बना लें। कहाँ से लाएं बाबुओं को देने के लिए। मुखिया, कर्मचारी, ग्रामसेवक, रोज़गार सेवक पता नहीं और कितने बाबुओं का जेब गरम करना पड़ता है। कुछ लोगों का छत बना, पर अब उनके पास दो घर हैं जिसे वो फार्म हाउस की तरह इस्तेमाल करते हैं। हमारे यहाँ बिजली की भी व्यस्था है, जिसके लिए रोज संघर्ष करना पड़ता है।
पूरा दिन तिरछी नजरों से देखते रहिये कब चमकेगा लाल रंग वाला इंडिकेटर ।एक आदमी रखिये जो सिर्फ देखता रहे, वोल्टेज कब सही हुआ तो पानी भरा जाए। हमारे इधर तो बिजली को रानी कहा जाता है - 'बिजली रानी' । जीसका दर्शन कभी कभी दुर्लभ हो जाता है। इस रानी के भी अपने नखरे हैं। ढेरों तरह के झाड़ फूक करते हैं घर के बच्चे तब जा कर आती हैं दर्शन देने। आजकल तो लगता है जैसे नेताओं के भाषणों में किये गए वादों की तरह हीं बर्ताव हो गया है इनका भी। सभी लोग आश लगाए बैठे रहते हैं। सबके मन में बस एक ही बात रहती है ― ओ बिजली रानी लौट आओ, घर पर सब तुम्हारे इंतेज़ार में बैठे हैं। चौबीसों घण्टे साथ देने का वादा करती थी। कभी इधर उधर चली जाया करती थी, पर आज तो हद हीं हो गयी, जो गयी हो वापस आ नहीं रही हो।
अरे, सरकारी बाबू खोजो बिजली रानी कहाँ गयी है, हमने तो लगाना भी शुरू कर दिया है लापता का पोस्टर दीवारों पर, उम्मीद है की तुम भी अपनी जिम्मेदारी निभाओगे, मिल जो गयी कहीँ बिजली रानी तो उसको हम तक पहुँचाओगे....... इंतेज़ार है बेसब्री से।
ऐसा हीं कुछ हाल है हमारा पर एक आश की किरण दिखाई दे रही थी जो शायद अब थोड़ी धुंधली होने लगी है। बहुत जल्द शायद वो दिन भी आएगा जब ये बिजली रानी कभी न जाएगी हमसे यूँ रुठ कर। क्या हम भी उन लोगों के जैसे बन जायेंगे जो बड़े बड़े शहरों में रहतें हैं और बिजली जाने के किस्से सिर्फ कहानियों में सुनते हैं। क्या बिजली की तरह हीं बाकी सेवाएं भी, जो आज तक दर्द में हैं उनका इलाज होगा या दुबारा से सिर्फ मरहम पट्टी कर दी जाएगी।
कहीं दुबारा भी सिर्फ शिलान्यास तक हीं तो रुका नहीं रह जायेगा - विकाश मुँह ताकते। खैर ये तो समय के साथ पता चल हीं जायेगा, और एक दिन जरूर ऐसी सुबह आएगी जब पूरा आम मीलेगा उसके असली हकदार को और तब विकाश की खोज पूर्ण हो जाएगी।




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