गढ़वा : अपना झारखंड 25वें साल में युवाकाल में प्रवेश कर चुका है। संपन्न हुए विधानसभा के 6ठे आम चुनाव में हेमंत सोरेन ने अपने लगातार दूसरे कार्यकाल का जनादेश प्राप्त कर लिया। प्रदेश बनने के बाद झामुमो ने लगातार अपना प्रदर्शन बेहतर किया है। लाख प्रयास के बाद भी अपनी दूसरी पारी के लिए प्रयासरत बाबूलाल मरांडी की हसरत अधूरी रह गई।
इधर, पलामू प्रमंडल की नौ सीटों में भी आशानुकूल परिणाम नहीं मिलने से भाजपा नेतृत्व को आत्ममंथन की जरूरत है। फायरब्रांड नेता के तौर पर पहचान बना रहे भानुप्रताप शाही, हेमंत सरकार के सर्वाधिक चर्चित मंत्री मिथिलेश ठाकुर और चित्तौडगढ़ कहे जाने वाले हुसैनाबाद से कमलेश सिंह की हार चौंकाने वाली रही।
इन सब से अलग, लंबे समय तक सत्ता के केंद्र में रहे और लगभग अविजित कहे जाने वाले दो राजनैतिक घरानों की हार ने राजनीतिक टिप्पणीकारों को उद्वेलित कर दिया। डालटनगंज से आलोक चौरसिया और केएन त्रिपाठी के कांटे की टक्कर में दिलीप सिंह नामधारी का 21 हजार वोट लेकर तीसरे नंबर पर रहना और गढ़वा से गिरिनाथ सिंह जैसे कद के नेता का महज 8059 वोट लाना अविश्वसनीय लगा।
डालटनगंज से 1980, 90, 95, 2000, 2005 और 2007 के उपचुनाव में अविजित रहे इंदर सिंह नामधारी और गढ़वा से 1962, 1969, 1985, 90 में स्व. गोपीनाथ सिंह और 1993 के उपचुनाव, 1995, 2000, 2005 में विजयी गिरिनाथ सिंह का कद इतना बड़ा हो गया था कि लोग इन दोनों सीटों पर उम्मीदवारी ही पेश नहीं करते थे। सारे समीकरण और दांवपेंच ध्वस्त होते रहे और ये दोनों गुरू-शिष्य विधायक बनते रहे।
2009 के दिसंबर में हुए चुनाव में गढ़वा सीट पर एकदम नया और गैर-राजनैतिक चेहरा सत्येन्द्रनाथ ने गिरिनाथ सिंह को 10 हजार से अधिक वोट से हराकर राजनीतिक पारा हाई कर दिया। 1985 से चला आ रहा सत्ता पर रंकाराज परिवार का एकाधिकार टूटा जो फिर उठ नहीं सका। 2014 के चुनाव में भी गिरिनाथ सिंह और सत्येन्द्रनाथ तिवारी आमने-सामने हुए और परिणाम वही रहा। पर राजद के टिकट पर गिरिनाथ सिंह ने 2009 में 40 हजार से अधिक और 2014 में 53 हजार वोट लाकर अपनी पकड़ मजबूत रखी। बदली स्थितियों में 2019 में गिरिनाथ ने रण छोड़ दिया और जेएमएम प्रत्याशी की परोक्ष मदद कर दी। (हाल के जनसभा में उन्होंने स्वीकार भी किया है।)
2014 में गिरिनाथ सिंह को प्राप्त 53 हजार और मिथिलेश ठाकुर को मिले 47 हजार मत मिलाकर 2019 में 1 लाख मत से मिथिलेश ने भाजपा को हराया।
(ऐसा लोग तर्क देते रहे और जेएमएम पर एहसान जताते और भुनाए भी खूब)। पर शनिवार को हुए मतगणना में मात्र 8059 प्राप्त वोट से चार बार के विजेता विधायक की लोकप्रियता पर प्रश्नचिन्ह लग गया। आपकी सक्रियता और अविजित भाव दरअसल लालू प्रसाद के आभा-मंडल का था। ओबीसी + माइनॉरिटी के वोट पर लालू फैक्टर हावी रहा था।
दिलीप सिंह नामधारी ने 2009 का चुनाव भाजपा के सिंबल पर सम्मानजनक लड़ा, नजदीकी मुकाबले में हारे। देश में चले नरेंद्र मोदी की लहर में भाजपा छोड़कर 2014 में निर्दल लड़े और चौथे नंबर पर रहे।
2019 में किस रणनीति के तहत "सरदार और सरकार" परिवार चुनावी समर से दूर रहा, यह समझ नहीं आया। कट्टर समर्थकों ने नया आशियाना ढूंढा और फिर लौटने में देर हो गई। 1980 और 1985 से चल रही गतिविधियों को 2024 में स्थाई तौर पर डिलीट कर दिया गया लगता है।