गुरू की महत्ता
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05-07-2020, 06:18 PM
अनिमेष चौबे
उच्च शिक्षा विद्यार्थी
गढ़वा : गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः, गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
छोटा सा शब्द 'गुरु' स्वयं में विराट एवं पवित्र अर्थ समाहित किए हुए है। गुरु 'गु' तथा 'रू' से मिलकर बना है 'गु' का अर्थ है अंधकार और 'रु' का अर्थ है प्रकाश, अर्थात जो हमें अज्ञानता, अकर्मण्यता, काम, क्रोध ,मद, लोभ रुपी संसारिक अंधकारों से निकालकर ज्ञान, कर्म, निष्काम, निर्विकार, निर्लोभ, मोक्ष रूपी प्रकाश से प्रकाशित करे वही गुरु है। गुरु वह है जो इस हाड़-मांस से बने शरीर में मनुष्यता को भरकर हमें जीवन योग्य बनाता है।
हम जब भी किसी महापुरुष के जीवन को जानने का प्रयास करते हैं, तो उसमें उनके गुरु की भूमिका सर्वश्रेष्ठ होती है। कभी आपने सोचा है क्यों?
क्योंकि गुरु वह कुम्हार है जो पैरों तले रौंदे जाने वाली मिट्टी को भी अपने तपस्वी चाक पर रखकर सिर पर लेने योग्य मटका बना देता है।
गुरु का चरित्र निर्लोभी, सादगी, शिष्य को पुत्रवत प्रेम करने वाला, स्त्रियों में आनाशक्तत, क्षमावाण, धर्मशील, धैर्यवान, सत्यवादी तथा अव्यसनी होना चाहिए। वर्तमान समय में न जाने कितने गुरु हैं जो बातें तो बहुत दिव्यता की करते हैं, किंतु स्वयं भौतिकता के पीछे भागते रहते हैं। वर्तमान के यही कालनेमि 'गुरु' जैसे पवित्र नाम पर भी कलंक का दाग लगा रहे हैं। इसलिए हमें चाहिए कि गुरु का चुनाव न करें, बल्कि गुरु की खोज करें और उसे पहचानें। गुरु कोई भी हो सकता है क्योंकि जिससे हमारे जीवन की अज्ञानता और आशक्ति समाप्त होती है वही गुरु है। हम किसी के माया से ऊपर चमत्कार को देखकर उसके प्रति जो समर्पण का भाव बना लेते हैं यह सर्वथा गलत है क्योंकि माया अनेक विघ्न करती है, ऋद्धियां देती है, यहां तक कि सिद्ध भी कर देती है लेकिन हमें इससे तुरंत प्रभावित नहीं होना चाहिए। क्योंकि जगत को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर देने वाले गुरु द्रोण, परम वीर योद्धा, वसुधा के सबसे बड़े युद्ध भूमि कुरुक्षेत्र में जिस के शिष्य अर्जुन ने सब को परास्त कर दिया, उस गुरु द्रोण को संसार कभी भी कुरुक्षेत्र विजय का श्रेय नहीं देता क्योंकि उन्होंने अर्जुन को शस्त्र विद्या दिया, युद्ध कौशल सिखाया, किंतु भगवान श्री कृष्ण के भांति गीता का उपदेश रूपी दीक्षा नहीं दिया और यही कारण है कि गुरू द्रोण नहीं बल्कि श्री कृष्ण संपूर्ण महाभारत के अग्रदूत कहे गए। गुरू द्रोण जो स्वयं महर्षि भारद्वाज के पुत्र थे, जिन्हें अग्नियास्त्र की भी विद्या ज्ञात थी, वह ब्रह्मऋषि नहीं कहलाए क्योंकि वह विपिन आश्रम के अभाव में रहकर जगत कल्याणार्थ शिक्षा देने के स्थान पर स्वयं को राजगुरु बनाकर राजसी सुख सुविधा में रखा, इसलिए वे आदर्श गुरु नहीं बने, जबकि वहीं गुरु चाणक्य ने एक साधारण बालक चंद्रगुप्त को मगध का सम्राट बना कर भी स्वयं को राजकाज से दूर रखा इसलिए चाणक्य आदर्श गुरु कहलाए।
गुरु का ऋण समाज के ऊपर ऐसा होता है जिससे समाज का कल्याण ऋण मुक्ति में नहीं, बल्कि समाज का कल्याण उस ऋण से और ज्यादा ऋणी होकर राष्ट्र कल्याण कार्य करने में निहित है। गुरु के प्रति नतमस्तक रहकर उनके ज्ञान के सप्तजान्हवी प्रवाह में स्वयं को भिगोए रखने में ही हमारा कल्याण निहित है। इसलिए हमें अपने गुरु के शरणागत होकर जीव के सर्वोत्तम लक्ष्य 'मोक्ष' की प्राप्ति में अनवरत लगे रहना चाहिए, ध्यान देंगे कि मोक्ष का अर्थ सिर्फ धार्मिक कृत्यों से नहीं, बल्कि कर्म में अनवरत लिप्त रहकर जगत के कल्याण से भी है।
गोस्वामी जी ने लिखा है-
गुर बिनु भव निध तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई॥
अर्थात गुरु के बिना कोई भवसागर नहीं तर सकता, चाहे वह ब्रह्मा जीऔर शंकर जी के समान ही क्यों न हो।
इसलिए गुरु की आवश्यकता सबको सर्वाधिक होती है।
गुरु हैं सब कुछ जगत में गुरु से सब कुछ होय ।
गुरु बिन और जो जानहीं भक्ति न पावै सोय ॥
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