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कालजयी स्वामी विवेकानंद

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access_time 04-07-2020, 05:57 PM


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स्वामी विवेकानंद


अनिमेष चौबे
उच्च शिक्षा विद्यार्थी

पुण्यतिथि पर विशेष गढ़वा : उठो जागो और लक्ष्य की प्राप्ति तक रुको मत विवेकानन्द एक ऐसा नाम जिसका स्मरण मात्र से मन में एक तेजस्वी सन्यासी की दिव्य छवि मन को अभिभूत कर देती है। स्वामी विवेकानंद एक व्यक्तित्व मात्र नहीं थे बल्कि एक बुनियाद थे एक ऐसी बुनियाद जिस पर गौरवशाली भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान का पुनीत कार्य टिका हुआ है। अपने ओजस्वी आवाज से सबके हृदय को छू लेने वाले स्वामी विवेकानंद जी ने समाज को धर्म, अध्यात्म, चरित्र निर्माण, शिक्षा एवं वैश्विक मूल्यों का सम्यक विश्लेषण दीया। उन्होंने निर्विवाद रूप से विश्व में हिंदुत्व की पताका लेकर धर्म की डगर से भटके संसार को सही राह दिखाया, स्वामी जी विशेषतः युवाओं को एक संबल प्रदान कर राष्ट्र निर्माण के लिए जागृत करने का काम किया। स्वामी जी का मानना था कि सत्य एक ही है और इसी वैदिक परंपरा को वैश्विक पटल पर रखने वाले स्वामी विवेकानंद जी ने विश्व को धार्मिक आधार पर एक दूसरे से श्रेष्ठता दिखाने की जगहसार्वभौमिक धर्म की कल्पना किया, जो कोई अलग धर्म नहीं बल्कि अपने अपने धर्मों में छिपा वैश्विक भाईचारे का सिद्धांत था। स्वामी जी भारत की मिट्टी को स्वर्ग मानते थे, उनके अनुसार मानव सेवा सबसे बड़ा धर्म था। उनका कहना था कि वे ना ही राजनेता है, ना ही राजनैतिक आंदोलनकारी हैं। उनके अनुसार भिन्न भिन्न धर्म के माध्यम से व्यक्ति एक ही शक्ति की पूजा प्रार्थना अथवा इबादत करता है बस सब की मान्यताएं अलग-अलग तरह से प्रदर्शित होते हैं। ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।। – ‘ जो कोई मेरी ओर आता हैं – चाहे किसी प्रकार से हो – मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं। भगवत गीता के निम्न श्लोक के माध्यम से वे अलग-अलग धर्मों के लोगों में व्याप्त वैमनस्यता को समाप्त करने का उपदेश देते रहे। रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।। – ‘ जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।’ उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानंद जो काम कर गए, वे आनेवाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे। तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानंद ने शिकागो, अमेरिका में विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवाई। गुरुदेव रवींन्द्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था, ‘‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएँगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।’’ रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था, ‘‘उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है। वे जहाँ भी गए, सर्वप्रथम हुए। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देखकर ठिठककर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा, ‘शिव !’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।’’ वे केवल संत ही नहीं थे, एक महान् देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था, ‘‘नया भारत निकल पड़े भड़भूंजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।’’ और जनता ने स्वामीजी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। गांधीजी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानंद के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा-स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं—केवल यहीं—आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उनके कथन—‘‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’’ स्वामी विवेकानंद जी का मानना था कि भविष्य में भारत को एक और विवेकानन्द की आवश्यकता पड़ेगी जो इस विवेकानन्द की बातों को समझेगा और बाकी बचे कार्यों को पूर्ण करेगा। 4 जुलाई, 1902 को बेलूर में रामकृष्ण मठ में उन्होंने ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण कर प्राण त्याग दिए।


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