भारतीय संस्कृति और सभ्यता का पुनीत धरोहर, रांची स्थित श्री जगन्नाथपुर मंदिर
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23-06-2020, 09:47 AM
रांची धुर्वा स्थित श्री जगन्नाथपुर मंदिर
डॉ उमेश सहाय
व्याख्याता,अर्थशास्त्र विभाग, एसपीडी कॉलेज, गढ़वा
गढ़वा : भारतीय संस्कृति की अनमोल अनुभूतियां अतीत के धरोहर के रूप में विद्यमान हैं। सत्य, अहिंसा, परमो धर्म, परोपकार, वसुधैव कुटुंबकम, सर्वजन सुखाय जन हिताय हमारी संस्कृति के आधार हैं। इनसे अलग रहकर हम अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख सकते। द्रविड़, आर्य अनार्य, वानर रिक्ष, असुर, दैत्य, दानव, देवकी सम्मिलित संस्कृति भारतीय संस्कृति में आत्मसात कर गई है। इसीलिए भारतीय संस्कृति एक विशालतम संग्रहालय है। संस्कृति का गुरु भारत विश्व के अन्य देशों से कुछ लेता नहीं है वरन् उसे देता ही है। आक्रमणकारियों ने इस संस्कृति को तहस - नहस करने के सारे उपाय निकालने पर स्वयं ही मिट गये, क्योंकि यहां के मठ मंदिर हमें सदैव अपनी संस्कृति का ज्ञान देते रहे हैं।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता का पुनीत धरोहर रांची स्थित श्री जगन्नाथपुर मंदिर भी अतीत का गौरव है। संस्कार से संस्कृति बनती है और सभ्यता सामाजिक विकास की एक मंजिल है। जब मनुष्य अपनी बर्बरता एकाकी पाश्विक प्रवृत्ति छोड़ सचेत जीवन व्यतीत करता है, समाज में सौजन्यता शील और स्नेह रखता है, तब वह सभ्य कहलाता है। ऐसे ही भारतीय सभ्यता और संस्कृति की पक्षधरों की अनमोल निधि बड़का गढ़ के ठाकुर महाराज रामशाही के चौथे पुत्र स्वर्गीय ठाकुर एनीनाथ शाहदेव का कीर्ति स्तंभ 25 दिसंबर 1691 ईस्वी में पूर्ण रुप से तैयार होकर जनमानस की आकांक्षाओं को मूर्तिमान करने हेतु भगवान जगन्नाथ जी अपने बड़े भाई बलदेव जी और बहन सुभद्रा के साथ मुक्त हस्त अपना आशीर्वाद लूटा ने इसी दिन इस मंदिर में प्राण प्रतिष्ठित हुए।
गर्भ गृह में ऊंचे आसन पर प्रतिमाएं मौजूद हैं आशना रुढ भगवान जगन्नाथ के दाएं बलदेव जी बीच में सुभद्रा जी और बाईं ओर स्वयं भगवान जगन्नाथ जी विराजमान है। इस विशाल देव प्रतिमाओं के इर्द - गिर्द धातु निर्मित बंशीधर की मूर्तियां भी हैं जो माराठाओं से यहां के नागवंशी राजा ने विजय चिन्ह के रूप में प्राप्त किया है। गर्भ गृह के आगे भोग गृह है।भोग गृह के पहले गरुड़ मंदिर है, जहां बीच में गरुड़ जी विराजमान हैं। गरुड़ मंदिर के आगे चौकीदार मंदिर है ये चारों मंदिर एक साथ बने हुए हैं। इसके आगे वर्तमान जगन्नाथपुर मंदिर न्यास समिति की देखरेख में एक विशाल छज्जा का निर्माण सन 1987 में हुआ है। प्रतिवर्ष भगवान के विग्रह रथ यात्रा के दिन इसी छज्जे के नीचे निर्मित सतह पर सर्वदर्शन के लिए लाए जाते हैं। मुख्य मंदिर से 1/4 किलोमीटर की दूरी मौसी बाड़ी मंदिर स्थित है, जहां रथयात्रा की संध्या में भगवान के सारे विग्रह लाए जाते हैं। भगवान की रथ यात्रा प्रति वर्ष आषाढ़ द्वितीय शुक्ल पक्ष को आयोजित होती है। 8 दिनों तक भगवान मौसी बाड़ी में विश्राम करते हैं। इनके विश्राम के क्षण में भी इनकी पूजा-अर्चना का वही क्रम जारी रहता है, जो मुख्य मंदिर की परंपरा से सम्बद्ध है। नवें दिन भगवान पुनः रथारूढ हो अपने मुख्य मंदिर के लिए प्रस्थान करते हैं। यह वापसी रथयात्रा के नाम से प्रसिद्ध है। जिसकी तिथि आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी आदि काल से ही निर्धारित है। कैसा सुंदर दृश्य उपस्थित होता है जब विशाल जनसमूह भगवान के रथ की रस्सी को खींचते हुए उन्हें मौसी बाड़ी ले जाते हैं और पुनः नवें दिन हर्ष उल्लास के साथ रथ को खींचकर मुख्य मंदिर तक लाते हैं। भगवान की रथ यात्रा जीवन चक्र सृष्टि चक्र तथा आवागमन चक्र का द्योतक है। जगन्नाथपुर मंदिर न्यास समिति पुरी मंदिर उड़ीसा से सदा संपर्क स्थापित रखती है, जिससे की वहां की रीति के अनुसार सारे धार्मिक अनुष्ठान आयोजित किए जा सके।
वैसे तो पूरी में यात्रा के समय भगवान के विग्रह अलग - अलग रथ पर आसीन होते हैं, जिसका नाम भी अलग - अलग है। एक रथ पर बलभद्रजी आसीन रहते हैं जिसे ताल ध्वज कहते हैं। जिस रथ पर माता सुभद्रा आसीन होती हैं, उसे दर्प दलन तथा भगवान जगन्नाथ जी का रथ नंदी घोष के नाम से जाना जाता है। लेकिन यहां पर सिर्फ एक ही रथ है जिस पर सारे विग्रह विराजमान हो मौसी बाड़ी के लिए प्रस्थान करते हैं।
रथ यात्रा आरंभ होने के पूर्व संस्कार विधि किया जाता है रथयात्रा के पूर्व स्नान यात्रा संस्कार का आयोजन प्रतिवर्ष जेष्ठ पूर्णिमा को होता है। भगवान के सारे विग्रह को उस दिन 108 बर्तनों में सुगंधित जल के द्वारा स्नान कराया जाता है। तब इन्हीं विग्रहों को गजवेश में सजाया जाता है। स्नान यात्रा के बाद भगवान एकांतवास करते हैं। इस एकांतवास के दिनों में जन साधारण को भगवान के दर्शन नहीं होते, इसीलिए इस अवधि को अनवसर नीति कहते हैं। सिर्फ पुजारी ही प्रतिदिन इस अवधि में भगवान की स्तुति करते हैं। यह अवधि उनके वार्षिक विश्राम का काल होता है। इसी अवधि में उनके वर्ष को पुराने रूप को सजा कर नया रूप दिया जाता है।
मूर्तिकार विश्राम काल में विग्रहों के समक्ष रह कर उनके रूप संवारने का काम करते हैं:
रथयात्रा के पूर्व संध्या में संवारी गई विग्रहों को नेत्र प्रदान किया जाता है। इस प्रथा को नेत्रदान के नाम से जानते हैं। नेत्रदान के बाद प्रभु के दर्शन सर्व सुलभ हो जाते हैं। तथा प्रातः रथ यात्रा का कार्य क्रम प्रारंभ होता है। भगवान की रथ यात्रा को देखकर हम अपने जीवन की यात्रा में कुछ न कुछ सीखते हैं यही भगवान की कृपा है।
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