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धरती आबा भगवान बिरसा मुण्डा

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access_time 09-06-2020, 06:06 PM


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भगवान बिरसा मुण्डा


अनिमेष कुमार चौबे
उच्च शिक्षा विद्यार्थी

गढ़वा: बिरसा मुंडा एक ऐसा नाम जिसके कहने सुनने में ही मन जोश एवं जज्बे से भर जाता है। आज के समय में जहां 25 वर्ष का युवा अपने कैरियर को शुरू करने की योजना बनाते रहता है, वहीं आज के एक सदी पहले बिरसा मुंडा जी ने मात्र 25 वर्ष की आयु में ऐसा कीर्तिमान स्थापित किया जिससे वे मनुष्य से हमारे भगवान बन गए। मुंडा जनजाति के पिता सुगना मुंडा एवं माता करमी हातु के परिवार में 15 नवंबर 1875 दिन वृस्पतिवार को इस जननायक का जन्म हुआ। बृहस्पतिवार को जन्म लेने के कारण उनका नाम बिरसा पड़ा। उस समय जनजातियों को जागीरदारों एवं अंग्रजों ने दमन एवं अत्याचार की पराकाष्ठा से इतना दबा कर रखा था कि गरीबी से तंग आकर उनके पिता सुगना मुंडा ने उन्हें मौसी के घर भेज दिया, कुछ दिन बाद जब बिरसा वापस आए तब उनके पिता ने उन्हें सलगा गांव के जयपाल नाग के विद्यालय में उनका दाखिला कराया जहां से लोअर परीक्षा पास करके बिरसा को चाईबासा के लूथरन मिशन भेजा गया। बिरसा मुण्डा बड़ी सुरूली बांसुरी बजाते थे, कई बार तो वे बांसुरी की धुन में इतना रम जाते थे कि सबकुछ भुल जाते थे। मिशन के स्कूल में पढ़ाई करते हुए बिरसा को भारतीय दुखों की दास्तां और अनेक अन्य दुखों की वास्तविक कारणों का ज्ञान हुआ। मिशन के पादरियों के कुछ विचार बिरसा को स्वीकार्य नहीं थे जिस कारण उन्होंने मिशन को छोड़ दिया। अब बिरसा ने शोषण के दास्तां अपनी आंखों से देखे, वे जहां जिस गांव में जाते वहां जनजाति में भय, आतंक और दरिद्रता ही देखने को मिलती। अंग्रेजों और जागीरदारों के आतंक को देखकर भगवान बिरसा ने निश्चय किया कि वे अंग्रेजों की नौकरी कभी नहीं करेंगे इस पर उनके पिता बहुत नाराज भी हुए किंतु भगवान बिरसा ने अपना फैसला नहीं बदला। उन्होंने जनजातीय क्षेत्रों की लगातार यात्राएं किया उन्होंने मुंडा,उरांव खड़िया आदि जनजाति से मिलकर उन्हें जागृत किया शोषित पीड़ित जनजातियों में विश्वास का दीपक जलाया। वे लगातार कई दिनों तक भूखे प्यासे रहकर लोगों में आत्मविश्वास की अलख जगाते रहे वह दूर-दूर तक जंगलों में पैदल घूम घूम कर लोगों से मिलते रहे और जन जागृति करते रहे। इसी दौरान उनकी मुलाकात वन गांव के जमींदार मनमोहन सिंह के मुंशी आनंद पांडे से हुई, आनंद पांडे के सानिध्य में बिरसा जी ने रामायण, गीता, महाभारत आदि धर्म ग्रंथों का अध्ययन करके स्वतंत्रता की उलगुलान से पहले की जन जागृति की योजना बनाई। उन्होंने आयुर्वेद का भी ज्ञान अर्जित किया जिससे वह गरीब असहाय जनजातियों की इलाज भी किया करते थे। बिरसा ने नारा दिया "अबुआ राज एते जना, महारानी राज दूर जना" अर्थात अबुआ राज आने वाला है और महारानी का राज जाने वाला है। भगवान बिरसा की बातों एवं दृढ़ इच्छाशक्ति से प्रभावित होकर बड़ी संख्या में जनजाति उनके साथ उलगुलान के लिए तैयार हो गए। उनके नेतृत्व में अंग्रेजों के जोर जुल्म और अत्याचार के खिलाफ उलगुलान का आह्वान कर दिया गया। जिसे हम मुंडा विद्रोह के नाम से जानते हैं। मुंडा विद्रोह उन्नीसवीं सदी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण जनजातीय विद्रोह में से एक है। झारखंड का सबसे बड़ा और अंतिम रक्तरंजित जनजातीय विद्रोह है, जिसमें हजारों की संख्या में मुंडा जनजाति शहीद हुए थे। 9 जनवरी उन्नीस सौ को मुंडा विद्रोह के सैनिक मुख्यालय डोमवारर पहाड़ी पर अंग्रेजों ने भारी सेना के साथ अंधाधुंध गोलियां बरसाई जिसमें सैकड़ों जनजातियों योद्धाओं ने अपने बलिदान दिया और यह दिन सदा सदा के लिए अमर हो गया। 9 मार्च उन्नीस सौ को रोहिती गांव में जब भगवान बिरसा लोगों के साथ मिलजुल रहे थे तब अंग्रेजों ने अपने एक गुप्तचर को उनके अनुयाई के रूप में भेजा सूचना पाकर फिर भारी सेना के साथ गांव पर हमला बोल दिया जहां से भगवान बिरसा को गिरफ्तार करके रांची जेल भेज दिया गया। रांची जेल में अंग्रेजों के चाटुकारों ने भगवान बिरसा को स्वयं को विद्रोह से अलग करने के लिए अनेक प्रलोभन दिए किंतु उनकी इच्छा पवित्र और अडिग था और वह था "अबुआ राज" की स्थापना। 9 जून उन्नीस सौ को अंग्रेजों के असह्य पीड़ा के बीच भगवान बिरसा ने रांची जेल में अंतिम सांस लिया। वे कभी मरे नहीं बल्कि सदा सदा के लिए अमर हो गए।


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