गढ़वा : अरे भाई हमारे प्रभु हम पर मेहरबान हैं तो दूसरे की कैसे चलेगी ! माना की पानी बीन मछली प्यासी की लोकोक्ति बालू के संदर्भ में चरितार्थ हो रही है, पर इसमें मेरा क्या कसूर है !
कुछ लोग इसे लेकर हाय तौबा मचा रहे हैं, पर भूल गए हैं कि कल उनकी बारी थी आज मेरी है, फिर हो-हल्ला मचाना कहां तक उचित है। बालू का इस्तेमाल करने वाले हमें प्राप्त करने के लिए चाहे जितनी कीमत चुका रहे हों पर भवन निर्माण की हसरतें तो मैं ही पूरी करता हूं। इतना कम है क्या? फिर बालू माफिया की बात कर कोसना कहां तक उचित है, कोसने से पहले जरा इस पर भी तो विचार करो।
हमारे कारोबार को लेकर जलन किस बात की। जब हमारे प्रभु हम पर मेहरबान है तो फिर किसकी चलेगी? आम लोग भी निहायत महंगा बालू पर हाय-तौबा मचा रहे हैं कि उन्हें 5 सौ का बालू ट्रैक्टर 5 हजार में मिल रहा है।
ऐसे आम लोगों को शिकायत करने से पहले इस पर ध्यान देने की जरूरत है कि यह कारोबार ऐसे ही थोड़े चल रहा है। इस कारोबार की चाबी तो जब आपको मौका था आपने ही ऐसे लोगों के हाथों सौंपे हैं, जिनके इशारे पर यह कारोबार चल रहा है। फिर अब पछताए क्या होता है जब चिड़िया चुग गई खेत। जरा सोचिए कितनी मगजमारी के बाद तो बालू के कारोबार का मौका मिलता है। अरे भाई नहीं समझे हैं तो आईए समझ लीजिए की कैसे और कितना रिस्क लेकर 'नो रिस्क नो गेन' का यह कारोबार चलाना पड़ता है।
पहले क्या हुआ उसे भूल जाइए वर्तमान को समझिए। सरकार ने एनजीटी के प्रतिबंध हटाने के बाद बालू घाट के बंदोबस्ती का हरी झंडी दे दिया है। पड़ोसी जिले में बंदोबस्ती भी हो चुका है। पर आपके यहां बंदोबस्ती अभी तक नहीं हुआ है और न सेटिंग-गेटिंग होने तक हो पाएगा।
वैसे भी लीगल कारोबार से इलीगल कारोबार ही ज्यादा फलदाई होता है। जरा इसे भी समझिए। ठीक है लीगल कारोबार दिन के उजाले में चलता है, इलीगल रात के अंधेरे में करना पड़ता है। रात के अंधेरे में कौन-कौन पहरा करता है, इस पर गौर करना पड़ता है।
कभी सोचा है कि कहीं का बालू, कहीं का परमिट, कहीं के स्टॉक का मगजमारी कर सड़क के बजाय गली-गूच्चों का सहारा लेकर लुका छिपी का खेल खेलने का नाटक करना पड़ता है। जरा मेरी इस पीड़ा को भी समझिए की दिन के उजाले में कमीशन पहुंचाओ, हाथ-पांव जोड़ो तब कहीं रात में वैसे ही लोगों से लुका छिपी का नाटक करो जिनकी इस कारोबार में हिस्सेदारी है। ऊपर से सस्पेंस भी बना रहता है कि कहीं चार दिन की यह चांदनी अंधेरी रात में न बदल जाए।
तात्पर्य यह की रिस्क, कमीशन, चढ़ावा सारा कुछ करना पड़ता है, तब जाकर इस कारोबार में शामिल होइए। ऊपर से बालू माफिया भी कहने से लोग नहीं चूकते हैं। रिस्क की भी कोई सीमा नहीं है भाई।
सिंडिकेट का उल्लंघन करने वाले ईमानदार अधिकारी पर ट्रैक्टर चढ़ाकर दहशत फैलाना भी पड़ता है, गाहे-बगाहे ऐसी खबर मीडिया में तो आती ही रहती है, फिर भाई जान बुझकर कर क्यों अंजान बने फिरते हो। सचेत रहो ढाई दिन की हुकूमत मिली है, इसलिए आग-फुस की बैर मत करो।