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दुर्गाजी कौन है उनका क्या स्थान है और हमें उनकी कैसे पूजा करनी चाहिये?

location_on India access_time 01-Oct-22, 10:07 PM

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*दुर्गाजी कौन है उनका क्या स्थान है और हमें उनकी कैसे पूजा करनी चाहिये?* इस बारे में श्रीब्रह्माजी ने बहुत ही अच्छे से श्रीब्रह्म संहिता के अध्याय 5 के 44 श्लोक में बताया है। श्रीब्रह्माजी श्री भगवान, श्री कृष्ण की प्रार्थना करते हुए कह रहे हैं:- सृष्टिस्थितिप्रलयसाधनशक्तिरेका, छायेव यस्य भुवनानि विभर्ति दुर्गा। इच्छानुरूपमपि यस्य च चेष्टते स, गोविन्दमादिपुरुष तमहं भजामि।। अनुवाद: भौतिक जगत् की सृष्टि, स्थिति एवं प्रलय की साधन कारिणी, चित् शक्ति की छाया स्वरूपा माया शक्ति, जो कि सभी के द्वारा दुर्गा नाम से पूजित होती हैं, जिनकी इच्छा के अनुसार वे चेष्टाएँ करती हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ। यह श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस श्लोक से ही कोई दुर्गाजी की पदवी और उनके कर्तव्यों के बारे में जान पाएगा। वह भगवान की बहिरंगा (माया) शक्ति हैं और वो भगवान की आध्यात्मिक (चित्त) शक्ति की छाया है। वो भगवान हरि की इच्छा के अनुरूप कार्य करती है। वह इस भौतिक जगत की स्वामिनी है और इस भौतिक जगत को दुर्गा धाम अर्थात देवी धाम के नाम से जाना जाता है। उनका काम इस भौतिक जगत में बद्ध आत्माओं (पतित आत्माओं) को बाँध/भटका करके रखना है। और वह उन लोगों की मदद करती है जो जीव अपने शाश्वत घर यानिकि भगवान के पास वापस जाने के लिए उत्सुक हैं। जो लोग माया से पूर्णरूप से मुक्त हैं और भगवान की शुद्ध भक्ति में लगे हुए हैं उनकी वो मदद करती हैं। अन्यथा वो भकते हए जोवों को इसी भौतिक जगत् में भटकाती हैं। अब सवाल ये उठता है कि वो क्यूँ और कैसे भटकाती हैं? वो जीवों को इसलिए भटकाती है क्यूँकि जीव इस भौतिक जगत में स्वयं भगवान बनने और भगवान से बहिर्मुख होकर सदा के लिए सुखी होने के लिए आया है। भगवान परम नियंता हैं और वे पूर्ण हैं और जीव भगवान का सूक्ष्म अंश है। जीव भगवान का सूक्ष्म अंश होने के कारण उसमें भी सूक्ष्म रूप से ईश्वरीय गुण पाए जाते हैं और वो भी सूक्ष्म रूप में नियंत्रण करना चाहता है। भगवान ने जीव को स्वतंत्र इच्छाशक्ति दे रखी हैं। जीव के उस इच्छाशक्ति में भगवान कोई हस्तक्षेप नहीं करते है। जीव का शाश्वत स्वभाव अर्थात सनातन धर्म अपनी सूक्ष्म स्वतंत्रता का सदुपयोग करते हुए अपनी इच्छा से अपने पूर्णांश यानिकि भगवान की सेवा करना हैं। और जीव के द्वारा भगवान की यह अनवरत सेवा सनातन धर्म कहलाता है (जिवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्य दास)। जव जीव अपनी इच्छा से भगवान की सेवा में लगा रहेगा तभी उसे शाश्वत ख़ुशी मिलेगी अन्यथा उसे दुःख ही भोगना पड़ता है। यहाँ पर प्रश्न यह उठता है कि जीव को भगवान की सेवा करके कैसे ख़ुशी मिलती है? इस बारे में श्रील प्रभुपाद ने दो उदाहरण दिए हैं पहले में पेड़ उसकी टहनियों तथा पत्तों का उदाहरण दिया है जब तक पत्ता उसकी टहनियों से जुड़ा हैं और उसके लिए काम कर रहा तो वह सदा ही हरा-भरा और सुखी रहेगा लेकिन जब वही पत्ती टहनियो से अलग होकर ख़ुश रहना चाहे तो कभी भी सुखी नहीं रह सकता हैं और उसका अस्तित्व ही बदल जाएगा। दूसरा उदाहरण वो शरीर और उसके अंगों का देते है जिसमें वे बताते हैं कि शरीर और उसके अंग अलग नहीं हैं और शरीर के अँगो का काम शरीर की सेवा करना है। जब शरीर के अंग शरीर से जुड़े रह कर उसकी सेवा कर रहें हैं तो वे ख़ुश रहेंगे। और जब वही अंग शरीर से अलग होकर ख़ुश रहना चाहेंगे तो वो कभी भी ख़ुश नहीं रह सकता। उसी तरह से जब जीवात्मा अपनी इच्छाशक्ति का सदुपयोग करते हुए परमात्मा की सेवा में लगा है तो उसे शाश्वत रूप से ख़ुशी मिलती है और अन्त में वह इस भौतिक जगत में बार बार जन्म मृत्यु के चक्कर से निकल कर एवं अपने भौतिक शरीर को छोड़ करके वह अपने शाश्वत शरीर को प्राप्त होगा और अपने घर बैकुंठ धाम को जाएगा। जब आत्मा भगवान से दूर होकर भोग करना चाहती हैं तो उनके लिए भगवान ने यह भौतिक जगत बनाया है और उसकी स्वामिनी दुर्गाजी है और वो जीवों को उनके शाश्वत स्वरूप को भुलवा देती हैं। वो कैसे बद्ध आत्माओं को इस जगत में भटकाती है? इसको आया के उदाहरण से बहुत ही अच्छे से समझा जा सकता है। एक आया क्या करती है? पूरे दिन बच्चे को उसके माँ बाप से भटका कर रखती है ताकि बच्चा अपने माँ बाप को भुला रहे। ठीक उसी प्रकार से दुर्गा जी भी जीवों को जो चाहिए उनकी भौतिक इच्छाओं तथा उनके कर्मों के अनुसार एक शरीर से दूसरे शरीर में या एक जगत से दूसरे जगत में भटकाती हैं। यह उसी प्रकार से है जैसे मेले का हिंडोला कभी ऊपर तो कभी नीचे करता रहता है बद्ध जीव भी उसी तरह से इस भौतिक जगत में दुर्गा जी के प्रभाव में आकर एक लोक से दूसरे लोक में भटकता रहता है। उनके प्रभाव में आकर यही काम हम अनंत जन्मो से करते रहते हैं। और अगर हमें इस भौतिक जगत से बाहर अर्थात अपने घर भगवद्धाम् को जाना है तो हमें उनसे किसी भी तरह की सांसारिक चीजों को नहीं माँगना चाहिए। केवल हमें उनसे यही माँगना चाहिए कि वह हमें भटकाए बिना आत्म-साक्षात्कार के लिए सही मार्ग दिखाए ताकि हम सही ढंग से भगवान की सेवा कर सकें और वापस हम भगवद्धाम जा सकें। कलियुग में यह कैसे सम्भव है? परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम... इस कलियुग में यह संकिर्तन आंदोलन (कृष्ण के पवित्र नाम का सामुहिक जाप) मानवता के लिए प्रमुख वरदान है। सदा भगवान के नाम का जप करो और प्रसन्न रहो।😇🙏😇 @lalkishormahto




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