श्री बंशीधर नगर-प्रखंड के पाल्हे जतपुरा ग्राम में चल रहे प्रवचन के दौरान जगद्गुरु रामानुजाचार्य रत्नेश जी महाराज ने कहा कि वाल्मीकि राम को महापुरुष कहकर नमन करते हैं.सच कहूँ तो महापुरूष ही नमन के योग्य है.महापुरूष वो है जिसके आगे सिर स्वत:झुक जाता है.आज तो स्वार्थ के लिये हर कोई हर किसी के आगे झुकने को तैयार है.पर नमस्कार की सार्थकता तो महापुरूष के ही चरणों में झुकने में हैं.कोई महापुरूष बनता कैसे है?जीवन में महत्ता आती कैसे है?ये विचारणीय है ताकि उसे जानकर प्रेरणा ली जा सके.क्षुद्र-स्वार्थ और व्यक्तिगत सुख के लिये जीने वाले कभी महापुरूष नहीं बन सकते.उसके लिये समस्त सुख-सुविधाओं का त्याग करके घर से बाहर निकलना पड़ता है.कुश-कंटकों पर चलते हुये सर्दी, गर्मी और बरसात को सहते हुये महान् लक्ष्य की ओर अग्रसारित होते रहना पड़ता है.घर में पलंग पर लेटकर ख़्वाब गढ़ने वाले कोई बड़ी क्रान्ति नहीं करते जब तक संघर्ष की आग में तपने के लिये बाहर न निकले.श्रीराम महापुरूष इसीलिये कहे गये क्योंकि समस्त अवतारों में सर्वाधिक दुख उन्होनें ही उठाये हैं.दूसरे की पीड़ा के दंश को वही समझ सकता है जो दुख की आग में स्वयं झुलसा हो,और इसका परिणाम यह हुआ कि श्रीराम सर्वाधिक सुख देने वाले भी हुये.श्रीराम के जीवन की दो बातें जो विशेष उल्लेखनीय है और हमारे लिये सबसे अधिक प्रेरक है.पहली बात तो यह कि बड़ी से बड़ी विपत्ति से वो घबराये नहीं,कभी हिम्मत नहीं हारे.ईश्वर होते हुये भी एक मनुष्य की नियति की समस्त बिडम्बनाओं का मुक़ाबला मनुष्योचित तरीक़े से अपने पौरूष-पराक्रम और बल-विक्रम से करके दिखाए.उन्होनें कभी ऊँचाई पर रहने देवताओं से कभी कोई सहायता नहीं माँगी.दूसरी बात यह कि उन्होनें ने कभी किसी को छोटा और बड़ा नहीं समझा.अपने आदर्शों की पूर्ति के लिये सबको अपनाया.अपने प्रेममय विनीत आचरण से वन में रहनेवालों को अपना बनाकर इतना निर्भय बना दिया कि वे अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध खड़े हो गये.श्रीराम अकेले रावण को मारते तो लोगों के हृदय में बैठा भय रूपी रावण कभी न मरता, उन्होनें लोगों में इतना विश्वास जगाया कि पशु पक्षी तक रावण से युद्ध के लिये तैयार हो गये.फलत: समाज से बुराई का अन्त हुआ, लोग मानवता के सहयोग के लिये सतत तैयार रहने लगे.